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भटकती आत्मा भाग - 26



.भटकती आत्मा भाग –26

  कर्मा का त्यौहार आदिवासी ग्रामीण समुदाय का प्रमुख पर्व था। युवतियां अपने भाई के दीर्घ जीवन के लिए व्रत करतीं । नाच गाना और नगाड़े के साथ धूम-धड़ाके में पता नहीं चलता कि दिन रात कैसे कट जाता ।
  बस्ती के युवक भी इस त्यौहार में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे वे भी अपनी बहनों की खुशी में पूर्ण सहयोग करते थे  
धन्नो विशेष खुश थी प्रति वर्ष तो  यह पर्व आता लेकिन धन्नो को दु:ख के सिवा कुछ नहीं मिलता।
उसके सुप्त दु:ख की कालिमा और भी गहरा उठती थी। चुपचाप झोपड़ी में सिसकती रहती,परन्तु आज कितनी प्रसन्न दृष्टि गोचर हो रही थी वह। बरसों से संजोई हुई अपनी रेशमी साड़ी को उसने लकड़ी के बक्से से निकाला,और सज सँवरकर मनकू भैया की बलैयाँ लेने लगी। फिर चल पड़ी अपनी सहेलियों के बीच। बस्ती के बीच एक अखड़ा था,वहीं सबको इकट्ठा होना था। यह कार्यक्रम शाम को आरंभ होता था,परन्तु प्रसन्नता में धन्नो दोपहर को ही चली गई थी।
  इधर मनकू माँझी जो निरंतर मैगनोलिया की याद में खोया रहता था,आज प्यारी बहन जानकी की याद में व्यग्र हो उठा था। पिछले सोहराय का दृश्य उसके समक्ष साकार हो उठा। शाम के समय मैगनोलिया के साथ घोड़ा से उतर कर वह अपनी बस्ती में पहुंचा था,परन्तु जानकी रूठी हुई थी। तब उसने उसको गोद में उठाकर नाचना शुरू कर दिया था,और मैगनोलिया ताली बजा-बजा कर हंसने लगी थी,और इसी पोज में उसने कई फोटो ले लिया था। इसके बाद तो जानकी भी हंसने लगी थी,उसका गुस्सा और मान पल भर में उड़ कर चला गया था कहीं दूर। तत्पश्चात मैगनोलिया के हाथ में हाथ डालकर वह भी नाचने लगी थी,और मनकू माँझी नगाड़ा पर हाथ का थाप देते स्वयँ भी नाचने लगा था। कितना सुख ! कितनी प्रसन्नता थी ! परन्तु अभी!आज!कर्मा के दिन! रूप से भाई-बहन का ही देखना है ! इस अवसर पर जानकी पर जाने क्या बीत रही होगी ! कल्पना करके भी डर रहा था मनकू ।
  सरदार अपनी मूछों पर ताव देता सफेद धोती और कुर्ता पहन रहा था। वह लगभग पचास वर्ष का हो चुका था,परन्तु देह सौष्ठव सराहनीय था । पुष्ट भुजाएं तथा बलिष्ठ शरीर,अभी भी कितने युवकों को पराजित करने में समर्थ था। उसकी तैयारी के क्रम में ही एक युवक भागा हुआ पहुंचा। वह बहुत घबराया हुआ था - 
    "सरदार धन्नो दीदी फूल चुनने जंगल में गई हुई थी उसके साथ कम्मो भी थी। परन्तु कम्मो फुल चुनकर एक पेड़ की छाया में बैठ गई,और धन्नो दीदी थोड़ी दूर जंगल में निकल गई। वहां पर जंगल के उस पार की बस्ती राघोपुर के सरदार का बेटा पहुंच गया और धन्नो दीदी को घोड़े में बैठा कर भाग खड़ा हुआ। कम्मो वहां से भागी हुई बस्ती पहुंची है तब हमें मालूम हुआ। अब आपकी आज्ञा की प्रतीक्षा में हम लोग हैं" -  एक ही सांस में उस युवक ने सारी बात बता दी।
  सरदार की आंखें क्रोध से लाल हो गईं। उसने युवक से कहा  -  
   "सभी लोग अपने अपने सभी हथियार - धनुष-बाण,बर्छी और भाले लेकर तैयार हो जाओ,मैं भी आ रहा हूं। हमारी बस्ती की सीमा पर सब इकट्ठा हो जाओ,आज राघोपुर के उस सरदार को मजा चखाना  ही होगा। बहुत दिनों से लड़ाई करने पर उतारू है साs s s  s •••••"।
पहले तो मनकू माँझी भी अनमना सा सब कुछ सुनता रहा,फिर उसकी नसें भी तन गईं,क्योंकि बात धन्नो पर आ गई थी और अपनी मुंहबोली बहन की इज्जत बचाना उसका कर्तव्य बन गया था। सरदार बगल में तलवार लटकाए और पीठ पर तरकश संभाले झोपड़ी से बाहर निकला। मनकू माँझी ने कहा   -
  "मेरे लिये आपकी क्या आज्ञा है बाबा" ? 
   "तुम ? तुम यहीं रहो,क्योंकि तुम हमारे मेहमान हो"।
  "नहीं बाबा,मैं मेहमान ही नहीं,अब आपका बेटा भी तो हूँ,इसलिए मैं भी साथ चलूंगा"।
   "ठीक है,चलना चाहो तो चलो"।
  सरदार के पीछे पीछे मनकू माँझी भी चल पड़ा,सीमा पर सब लोग मिल गये। एक युवक को सरदार मोर्चा बंदी संभालने का निर्देश देने लगा। मनकू मौन सब कुछ देख रहा था। उसको यहां गौण समझा जा रहा था। उसको धनुष बाण या अन्य कोई भी हथियार नहीं दिया गया था,फिर भी चुपचाप वह चल पड़ा। जंगल के बीच में ही रुक जाना पड़ा उन्हें,क्योंकि राघोपुर के नव जवानों को लिए हुए उनका सरदार खड़ा मुस्कुरा रहा था। विष बुझे तीरों से लदे-सधे सभी युवक सरदार की आज्ञा की प्रतीक्षा में थे। इधर भी सरदार अपने जंगी युवकों के साथ आ डटा था।
राघोपुर के सरदार की आवाज जंगल में गूंज उठी -   "सरदार तुमने बाजार में हमसे सस्ता मूल्य पर विष को बेचा,और हमारे व्यापार को नुकसान पहुंचाया है। हमारी सीमा में भी लुके-छुपे तुम्हारे आदमी आकर सांप पकड़ते रहे हैं। मैं इन सब बातों को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता। तुम्हारे आदमियों को मेरे आदमी बार बार रोकते रहे और उन्हें इसके लिये दण्ड भी दिया। परन्तु तुम यह चोरी भी बन्द नहीं करवाते और लड़ना भी नहीं चाहते। मेरे आदमियों ने कई बार तुम्हारे आदमियों को युद्ध के लिए ललकारा, फिर भी तुम लड़ना नहीं चाहते थे,और बात को दबाते रहे। इसलिए आज मैं तुमसे आमने सामने की लड़ाई पर उतारू हुआ हूं। क्योंकि अब अधिक नुकसान मैं सहन नहीं कर सकता"।
    "ओह तो यह बात है नीच कुत्ते तुमने मेरी बेटी को पकड़ने के पहले अपनी बेटी को एक बार तो याद कर लिया होता"।
   "वह तो एक हथकंडा है जिसके सहारे मैं तुमसे कुछ शर्त मनवा लूंगा"।
   "नीच पापी मैं तुम्हारी कोई भी शर्त मानने को तैयार नहीं"।
  अरे दुष्ट शर्त कैसे नहीं मानोगे,बेकार खून खराबा करने से क्या लाभ। तुम्हें नंदी वन और उसके आसपास के खेत मेरे अधिकार में करना होगा। फिर मैं जिस भाव से विष बाजार में बेचूँ, तुम्हें भी उसी भाव से बेचना होगा। बोलो शर्त मंजूर है"?
    "नहीं यह कभी नहीं होगा" -  जमुना बाड़ी का सरदार चिल्लाया।
    "फिर दूसरा उपाय यह है कि मैं तुम्हारी बेटी को अपनी पुत्रवधू बनाऊंगा,तब तो दहेज में यह सब दोगे ही" - राघोपुर के सरदार ने मुस्कुराते हुए कहा।
   " नीच,कुत्ते तुम्हारी यह मजाल,मैं कोई कल कमजोर बेचारा नहीं! अभी तुम्हारे हौसले चूर करता हूं" - इधर का सरदार दहाड़ा।
   "ठीक है" -  उधर के सरदार ने कहा। देखते-देखते घमासान युद्ध छिड़ गया। दोनों पक्ष के युवक घायल होने लगे। मनकू माँझी जो अब तक मूक दर्शक बना था,झट दौड़ता हुआ गया और राघोपुर के एक घायल हुए युवक का धनुष बाण अपने अधिकार में कर लिया। फिर ऐसा सधा हुआ तीर चलाने लगा कि उसके निशाने से कोई भी नहीं बच पाता था। अब राघोपुर के बहुत से युवक या तो घायल हो गए थे या उसके निशाने से बचने के लिए इधर उधर छुप रहे थे। कुछ युवक तो अत्यधिक घायल होकर जमीन में ऐसा पड़े कि हिल भी नहीं सक रहे थे।
   राघोपुर का सरदार निराश होने लगा। वह मनकू माँझी की सधी निशानेबाजी को देखकर काँप गया,फिर स्वयं मोर्चा संभाला। अब इधर सरदार और उधर मनकू माँझी डटा हुआ था। जमुनाबारी का सरदार मनकू माँझी को गर्व और प्रशंसा पूर्ण दृष्टि से देखे जा रहा था। हटात् मनकू ने दौड़कर सरदार को धर दबोचा,तत्पश्चात अपने सरदार को देखा। इशारा पाकर उसने राघोपुर के सरदार को बांध दिया। जब अपने सरदार को असहाय बंधा हुआ उनके आदमियों ने देखा,तब हथियार डाल दिया। जमुना बाड़ी के नवयुवकों ने सम्मिलित स्वर में नारा लगाया  -  
    "हमारा सरदार जिंदाबाद,मनकू माँझी जिंदाबाद"।

    क्रमशः




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